सुश्री गीतांजलि पंकज
पर्युषण पर्व (Paryushan Parv) :जैन धर्म का एक महत्वपूर्ण पर्व,समाज को अच्छी सीख
जिसे जैन धर्मावलंबी विशेष श्रद्धा और भक्ति के साथ मनाते हैं। यह पर्व आत्मशुद्धि, तपस्या, और क्षमा याचना पर आधारित होता है। पर्युशन पर्व का मुख्य उद्देश्य आत्मा की शुद्धि करना और अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, और अपरिग्रह जैसे जैन धर्म के पांच महाव्रतों का पालन करना है।
यह पर्व श्वेतांबर और दिगंबर, दोनों जैन समुदायों द्वारा मनाया जाता है, हालांकि इनके बीच पर्व की तिथियों और कुछ रीति-रिवाजों में थोड़ा अंतर हो सकता है। श्वेतांबर समुदाय में पर्युशन पर्व 8 दिन तक चलता है, जबकि दिगंबर समुदाय में इसे 10 दिन तक मनाया जाता है, जिसे ‘दश लक्षण पर्व’ कहा जाता है।
पर्व के दौरान जैन अनुयायी उपवास करते हैं, ध्यान और प्रार्थना करते हैं, धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन करते हैं, और अपने आचरण को शुद्ध करने का प्रयास करते हैं। इस पर्व का अंत क्षमावाणी दिवस के साथ होता है, जिस दिन सभी एक-दूसरे से क्षमा मांगते हैं और ‘मिच्छामि दुक्कडम’ कहकर अपने द्वारा किए गए किसी भी गलत कार्य के लिए क्षमा याचना करते हैं।
पर्युषण पर्व कीऐतिहासिक पृष्ठभूमि: जैन धर्म की प्राचीन परंपराओं और महावीर स्वामी के उपदेशों से जुड़ी है। यह पर्व जैन धर्म के दोनों प्रमुख संप्रदायों (श्वेतांबर और दिगंबर) में मनाया जाता है और इसका उद्देश्य आत्मशुद्धि, तपस्या, और क्षमायाचना है।
पर्युषण पर्व का इतिहास:
महावीर स्वामी के समय से जुड़ाव:
पर्युषण पर्व की उत्पत्ति का संबंध 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी के समय से माना जाता है। महावीर स्वामी ने अपने उपदेशों में अहिंसा, सत्य, तप, और संयम पर जोर दिया था। उनके द्वारा प्रचारित इन मूल्यों को जीवंत रखने के लिए पर्युशन पर्व का आयोजन किया जाता है। महावीर स्वामी के जीवन और उनके द्वारा प्रचारित धार्मिक सिद्धांत इस पर्व का मुख्य आधार माने जाते हैं। यह पर्व उनके द्वारा प्रतिपादित मोक्ष के मार्ग को अनुयायियों तक पहुंचाने के लिए मनाया जाता है।
पुराने समय में वर्षायोग के साथ संबंध:इस पर्व का प्रारंभिक स्वरूप वर्षायोग से जुड़ा हुआ है। वर्षायोग वह अवधि होती थी जब जैन साधु और साध्वियाँ बारिश के मौसम में स्थायी रूप से एक ही स्थान पर रहते थे। प्राचीन भारत में बारिश के मौसम में यात्रा करना कठिन होता था, और इस कारण साधु-साध्वियाँ वर्षायोग के दौरान एक स्थान पर ध्यान, अध्ययन, और तपस्या करते थे। इस समय का उपयोग आत्मनिरीक्षण और आत्मशुद्धि के लिए किया जाता था। इसी परंपरा से पर्युषण पर्व का विकास हुआ।
क्षमा की परंपरा: जैन धर्म के इतिहास में क्षमा याचना का विशेष महत्व रहा है। तीर्थंकरों और अन्य धर्मगुरुओं ने हमेशा क्षमा को एक महत्वपूर्ण नैतिक मूल्य के रूप में स्थापित किया है। यह पर्व लोगों को सिखाता है कि क्षमा मांगना और क्षमा करना दोनों ही आत्मा की शुद्धि और मोक्ष के लिए आवश्यक हैं।
श्वेतांबर और दिगंबर संप्रदायों का योगदान: जैन धर्म में दो प्रमुख संप्रदाय हैं—श्वेतांबर और दिगंबर। दोनों ही संप्रदाय इस पर्व को मानते हैं, लेकिन कुछ अंतर हैं। श्वेतांबर संप्रदाय के लोग इसे 8 दिनों तक मनाते हैं, जबकि दिगंबर संप्रदाय में इसे 10 दिनों तक मनाया जाता है। दिगंबर परंपरा में इसे “दशलक्षण पर्व” कहा जाता है, जहां 10 प्रमुख धार्मिक गुणों का पालन किया जाता है।
पंचकल्याणक और भगवान महावीर
पर्युषण पर्व के दौरान कुछ धार्मिक पूजा-पाठ भगवान महावीर के जीवन के महत्वपूर्ण घटनाओं से जुड़े होते हैं। पंचकल्याणक पूजा में भगवान महावीर के जन्म, दीक्षा, कैवल्यज्ञान, और मोक्ष की घटनाओं का स्मरण किया जाता है। इस प्रकार, पर्युषण पर्व महावीर स्वामी की शिक्षाओं के प्रति श्रद्धा प्रकट करने का भी एक तरीका है।
धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन: पर्युषन पर्व के इतिहास में यह देखा जाता है कि इस समय जैन अनुयायी अपने धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन और पाठ करते थे। कालांतर में यह परंपरा विकसित होती गई और आज भी अनुयायी “कल्पसूत्र” जैसे ग्रंथों का पाठ करते हैं। कल्पसूत्र में भगवान महावीर के जीवन की घटनाओं का वर्णन होता है, जिसे इस पर्व के दौरान विशेष रूप से पढ़ा जाता है।
समकालीन परिप्रेक्ष्य:
इतिहास में इस पर्व का स्वरूप और विधियाँ भले ही अलग-अलग रही हों, लेकिन आज भी यह पर्व जैन धर्म में अत्यंत महत्वपूर्ण बना हुआ है। इसके माध्यम से जैन अनुयायी अपने धर्म के मूल सिद्धांतों का पालन करते हैं और आत्मशुद्धि की दिशा में आगे बढ़ते हैं पर्युषण पर्व के महत्व और प्रक्रियाओं को समझने के लिए इसे और भी विस्तार से देखा जा सकता है:
पर्युषण के दिन और उनके विशेष महत्व:
श्वेतांबर परंपरा में पर्युषण पर्व 8 दिन तक चलता है। पहले सात दिनों में लोग प्रार्थना, उपवास और धार्मिक गतिविधियों में संलग्न होते हैं। 8वें दिन को ‘संवत्सरी’ कहा जाता है, जो पर्व का सबसे महत्वपूर्ण दिन होता है।
दिगंबर परंपरा में यह पर्व 10 दिनों का होता है, जिसे ‘दशलक्षण पर्व’ कहा जाता है। इन 10 दिनों में जैन धर्म के दस धर्मों का पालन करने का प्रयास किया जाता है, जैसे कि क्षमा, मार्दव (विनम्रता), आर्जव (सादगी), सत्य, शौच (पवित्रता), संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य (निर्मोह) और ब्रह्मचर्य।
उपवास और तपस्या:
उपवास पर्युषण पर्व का एक प्रमुख हिस्सा होता है। जैन अनुयायी विभिन्न प्रकार के उपवास करते हैं, जो व्यक्ति की शारीरिक क्षमता और मानसिक स्थिति पर निर्भर करता है। कुछ लोग इस दौरान संपूर्ण जल या आहार का त्याग कर देते हैं, जबकि कुछ सीमित भोजन करते हैं।
अठाईइस में आठ दिनों तक केवल जल ग्रहण किया जाता है।
तेला यह तीन दिनों का उपवास होता है, जिसमें व्यक्ति बिना भोजन और जल के रहता है।
एकासना: इसमें दिन में एक बार ही भोजन ग्रहण किया जाता है।
पर्युषण का आध्यात्मिक संदेश:
इस पर्व का सबसे बड़ा संदेश आत्मा की शुद्धि और मोक्ष की ओर अग्रसर होना है। जैन धर्म के अनुयायी इस पर्व के माध्यम से यह सीखते हैं कि उन्हें जीवन में अहिंसा, सत्य, और तपस्या का पालन करते हुए मोक्ष के मार्ग पर चलना चाहिए।
सुश्री गीतांजलि पंकज