थिएटर के पटरे से 70MM तक: विपुल अमृतलाल शाह का क्रिएटिव सफर
विपुल अमृतलाल शाह – एक ऐसा नाम जिसने थिएटर के बैकस्टेज से बॉलीवुड की बड़ी स्क्रीन तक खुद को साबित किया। वे न केवल बेहतरीन डायरेक्टर-प्रोड्यूसर हैं, बल्कि उन्होंने भारत में डेली सोप का कॉन्सेप्ट लाकर टीवी की दुनिया को ही बदल डाला।
बचपन से क्रिएटिव फील्ड की ओर रुझान
पार्ले ईस्ट की एक मिडिल क्लास फैमिली में जन्मे विपुल बचपन से ही नाटकों और कला की दुनिया में रच-बस गए थे। स्कूल-कॉलेज के नाटकों से लेकर पृथ्वी थिएटर तक का सफर तय किया। एक्टिंग के बजाय डायरेक्शन में उन्हें ज्यादा मजा आने लगा और यहीं से शुरू हुआ उनका असली सफर।
बैकस्टेज से लाइट-कैमरा-एक्शन तक
पृथ्वी थिएटर में शो के सफल होने पर कभी-कभी 10 रुपए मिल जाते थे, लेकिन क्रिएटिव संतोष सबसे बड़ा इनाम था। पिता ने एक शर्त रखी – एक उम्र तक सफल नहीं हुए तो किताबों की दुकान में लौट आना होगा। विपुल ने उसी शर्त को चैलेंज बना लिया और धीरे-धीरे कामयाबी की सीढ़ियां चढ़ते गए।
थिएटर के बंजारे दिन
विपुल के थिएटर के दिन बंजारों की तरह थे – बस में लकड़ी के पटरे, रात भर का सफर, पत्ते खेलना, सुबह तक शो की तैयारी और फिर शो के बाद वापसी। पैसों की कमी थी, लेकिन ज़िंदगी में रंग भरपूर थे।
भारत का पहला 1000 एपिसोड वाला डेली सोप
‘एक महल हो सपनों का’ – भारत का पहला ऐसा डेली सोप बना जो 1000 एपिसोड तक चला। शो इतना लोकप्रिय हुआ कि एक किरदार ‘शेखर’ की मौत पर देशभर में शोकसभाएं हुईं। उस दौर में विपुल को टीवी की असली ताकत का एहसास हुआ।
22 घंटे काम और 4 घंटे की नींद
शो की लोकप्रियता बनाए रखने के लिए विपुल 5-6 साल तक दिन के 22 घंटे काम करते थे। इसी थकावट के दौरान एक बार उनका एक्सीडेंट भी हो गया, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी।
गुजराती सिनेमा को दिलाई नई पहचान
‘दरिया छोरू‘ – गुजराती भाषा की पहली 35MM सिनेमास्कोप फिल्म थी, जिसमें डॉल्बी साउंड का इस्तेमाल हुआ। फिल्म को गुजरात सरकार से 9 अवॉर्ड मिले और खुद अमिताभ बच्चन ने इसे थिएटर में देखा।
पहली हिंदी फिल्म में अमिताभ को विलेन बनाया
विपुल और उनके साथी आतिश जब गुजराती नाटक ‘आंदलो पाटो’ कर रहे थे, तब उन्होंने मजाक में कहा था कि इस पर फिल्म बनाएंगे और बच्चन साहब को विलेन बनाएंगे। जब ‘आंखें‘ बनी, तो वही सपना हकीकत बन गया। अमिताभ बच्चन ने पहली बार निगेटिव रोल निभाया – और वो भी विपुल की फिल्म में।
